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नमः॑ पु॒रा ते॑ वरुणो॒त नू॒नमु॒ताप॒रं तु॑विजात ब्रवाम। त्वे हि कं॒ पर्व॑ते॒ न श्रि॒तान्यप्र॑च्युतानि दूळभ व्र॒तानि॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

namaḥ purā te varuṇota nūnam utāparaṁ tuvijāta bravāma | tve hi kam parvate na śritāny apracyutāni dūḻabha vratāni ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नमः॑। पु॒रा। ते॒। व॒रु॒ण॒। उ॒त। नू॒नम्। उ॒त। अ॒प॒रम्। तु॒वि॒ऽजा॒त॒। ब्र॒वा॒म॒। त्वे इति॑। हि। क॒म्। पर्व॑ते। न। श्रि॒तानि॑। अप्र॑ऽच्युतानि। दुः॒ऽद॒भ॒। व्र॒तानि॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:28» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दूळभ) दुःख से मारने योग्य (तुविजात) बहुतों में प्रसिद्ध (वरुण) प्रशंसित पुरुष हम लोग (ते) आपके (पुरा) पहिले (नूनम्) निश्चित (उत) और (अपरम्) दूसरे (नमः) सत्कार के वचन को (ब्रवाम) कहें (पर्वते) मेघ में (न) जैसे-वैसे (त्वे) आपमें (कम्) सुख का (श्रितानि) आश्रय करते हुए (अप्रच्युतानि) नाशरहित (हि) ही (उत) और (व्रतानि) सत्यभाषण आदि व्रतों को कहें ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो इस जगत् में श्रेष्ठ विद्वान् हैं, उनके प्रति सदैव प्रिय वचन कहें और अनुकूल आचरण करें और उनके गुण-कर्म-स्वभावों को अपने में ग्रहण करें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे दूळभ तुविजात वरुण वयं ते पुरा नूनमुतापरं नमो ब्रवाम। पर्वते न त्वे कं श्रितान्यप्रच्युतानि ह्युत व्रतानि ब्रवाम ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नमः) सत्कारि वचः (पुरा) (ते) तव (वरुण) प्रशस्त (उत) (नूनम्) निश्चितम् (उत) अपि (अपरम्) द्वितीयम् (तुविजात) बहुषु प्रसिद्ध (ब्रवाम) (त्वे) त्वयि। अत्र सुपां सुलुगिति शे आदेशः (हि) खलु (कम्) सुखम्। कमिति वारिमूर्द्धसुखेषु (पर्वते) मेघे (न) इव (श्रितानि) आश्रितानि (अप्रच्युतानि) अविनश्वराणि (दूळभ) दुःखेन हिंसितुं योग्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येऽत्र जगति श्रेष्ठा विद्वांसः सन्ति तान् प्रति सदैव प्रियं वचो वक्तव्यमनुकूलमाचरणं च कर्त्तव्यं तद्गुणकर्मस्वभावाः स्वस्मिन् ग्राह्याः ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जगात जे श्रेष्ठ विद्वान आहेत त्यांना माणसांनी सदैव प्रिय वचन बोलावे व अनुकूल आचरण करावे. तसेच त्यांच्या गुणकर्मस्वभावाचे अनुकरण करावे. ॥ ८ ॥